गरचे क्या कुछ थे मगर आप को कुछ भी न गिना
इश्क़ बरहम-ज़न-ए-काशाना-ए-पिंदार रहा
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यूसुफ़-ए-हुस्न का हुस्न आप ख़रीदार रहा
क़ामत ही लिखा हम ने सदा जा-ए-क़यामत
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
देखा जो मर्ग तो मरना ज़ियाँ न था
हर शय को इंतिहा है यक़ीं है कि वस्ल हो
न मैं समझा न आप आए कहीं से
कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
वो जो गर्दन झुकाए बैठे हैं
उन से हम लौ लगाए बैठे हैं
नज़र आए क्या मुझ से फ़ानी की सूरत
सूरत छुपाइए किसी सूरत-परस्त से