हर शय को इंतिहा है यक़ीं है कि वस्ल हो
अर्सा बहुत खिंचा है मिरी इंतिज़ार का
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हो रहा है टुकड़े टुकड़े दिल मेरे ग़म-ख़्वार का
कमर बाँधी है तौबा तोड़ने पर
बे-तरह पड़ती है नज़र उन की
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
किस सोच में हैं आइने को आप देख कर
थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'
अब अपना हाल हम उन्हें तहरीर कर चुके
गोया कि सब ग़लत हैं मिरी बद-गुमानियाँ
उन से हम लौ लगाए बैठे हैं
पी भी जा शैख़ कि साक़ी की इनायत है शराब
शर्म भी इक तरह की चोरी है
'अनवर' ने बदले जान के ली जिंस-ए-दर्द-ए-दिल