पी भी जा शैख़ कि साक़ी की इनायत है शराब
मैं तिरे बदले क़यामत में गुनहगार रहा
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गोया कि सब ग़लत हैं मिरी बद-गुमानियाँ
अश्क बेताब व निगह बे-बाक व चश्म-ए-तर ख़राब
न मैं समझा न आप आए कहीं से
थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'
आँखें दिखाईं ग़ैर को मेरी ख़ता के साथ
मोहब्बत हो तो बर्क़-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो
'अनवर' ने बदले जान के ली जिंस-ए-दर्द-ए-दिल
बे-तरह पड़ती है नज़र उन की
उन से हम लौ लगाए बैठे हैं
सूरत छुपाइए किसी सूरत-परस्त से
कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या