मोहब्बत हो तो बर्क़-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो

मोहब्बत हो तो बर्क़-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो

वो आतिश क्या कि सीने में निहाँ हो

नहीं हुआ और फिर कहने को यहाँ हो

हरीफ़-ए-बद-गुमाँ के हम गुमाँ हो

तहय्युर-ए-फ़र्त शौक़-ए-दीद से हूँ

वहीं मुझ को भी देखो तुम जहाँ हो

सुनी जाती हो जब महशर में रूदाद

तो अपनी ख़त्म क्यूँकर दास्ताँ हो

वो मुस्तग़नी सही पर दिल गया है

जो फिर हो तो उन्हीं पर कुछ गुमाँ हो

जो सच हो वादा-ए-दीदार उन का

तो बातों में क़यामत क्यूँ अयाँ हो

मुझे सर फोड़ने में उज़्र क्या है

मगर उन का ही ही संग-ए-आस्ताँ हो

तुम्हें वो पर्दा यहाँ है पर्दा-दारी

मेरे दिल में नहीं तो फिर कहाँ हो

रुका जाता है दम-ए-सीना में क्या क्या

गले पर काश ख़ंजर सा रवाँ हो

छुपाए हम से क्या क्या राज़ अपने

अगर कोई हमारा राज़-दाँ हो

रहे क्यूँ तल्ख़ी-ए-फ़रहाद का ज़िक्र

अगर शीरीं की शीरीं दास्ताँ हो

ज़ुलेख़ा पर न हो क्यूँ नाज़िश-ए-इश्क़

कि जब यूसुफ़ मता-ए-कारवाँ हो

अदू ख़ुश ख़ुश है कुछ कह कर सुना है

न मानूँगा कभी तुम बे-दहाँ हो

मिला है बैठे रहने का सहारा

जहाँ हो और तुम्हारा आस्ताँ हो

उसी में फ़ैसला समझा हूँ दिल का

कहाँ तक देखिए ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ हो

यहाँ बैठे हो पर कुछ उखड़े उखड़े

नज़र मिलती नहीं दिल से कहाँ हूँ

सरापा सोज़ है उल्फ़त में 'अनवर'

अजब क्या है अगर आतिश-ज़बाँ हो

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