शर्म भी इक तरह की चोरी है
वो बदन को चुराए बैठे हैं
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गरचे क्या कुछ थे मगर आप को कुछ भी न गिना
हश्र को मानता हूँ बे-देखे
नींद का काम गरचे आना है
पी भी जा शैख़ कि साक़ी की इनायत है शराब
कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
मोहब्बत हो तो बर्क़-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो
आँखें दिखाईं ग़ैर को मेरी ख़ता के साथ
वो जो गर्दन झुकाए बैठे हैं
है भी और फिर नज़र नहीं आती
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
नज़र आए क्या मुझ से फ़ानी की सूरत
उन से हम लौ लगाए बैठे हैं