कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
हाँ ये सही कि आप को आना यहाँ न था
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गरचे क्या कुछ थे मगर आप को कुछ भी न गिना
क़ामत ही लिखा हम ने सदा जा-ए-क़यामत
है भी और फिर नज़र नहीं आती
नज़र आए क्या मुझ से फ़ानी की सूरत
उन से हम लौ लगाए बैठे हैं
थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'
कमर बाँधी है तौबा तोड़ने पर
हश्र को मानता हूँ बे-देखे
अब अपना हाल हम उन्हें तहरीर कर चुके
कुछ ख़बर होती तो मैं अपनी ख़बर क्यूँ रखता
बे-तरह पड़ती है नज़र उन की
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम