बे-तरह पड़ती है नज़र उन की
ख़ैर दिल की नज़र नहीं आती
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कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
सूरत छुपाइए किसी सूरत-परस्त से
मैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ छुट के जाऊँगा कहाँ
हो रहा है टुकड़े टुकड़े दिल मेरे ग़म-ख़्वार का
न मैं समझा न आप आए कहीं से
नज़र आए क्या मुझ से फ़ानी की सूरत
अल्लाह-रे फ़र्त-ए-शौक़-ए-असीरी के शौक़ में
गरचे क्या कुछ थे मगर आप को कुछ भी न गिना
मोहब्बत हो तो बर्क़-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो
कमर बाँधी है तौबा तोड़ने पर
गोया कि सब ग़लत हैं मिरी बद-गुमानियाँ