छुपे हैं अश्क दरवाज़ों के पीछे
छतों ने सिसकियाँ ढाँपी हुई हैं
दुखों के गिर्द दीवारें चुनी हैं
ब-ज़ाहिर मुख़्तलिफ़ शक्लें हैं सब की
मगर अंदर के मंज़र एक से हैं
बनी-आदम के सब घर एक से हैं
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दाख़िल-ए-दफ़्तर
दिल सुलगता है तिरे सर्द रवय्ये से मिरा
मेरी पहली नज़्म
जो चोट भी लगी है वो पहली से बढ़ के थी
हाँ मुझे उर्दू है पंजाबी से भी बढ़ कर अज़ीज़
बे-हिर्स-ओ-ग़रज़ क़र्ज़ अदा कीजिए अपना
मैं ने 'अनवर' इस लिए बाँधी कलाई पर घड़ी
पढ़ने भी न पाए थे कि वो मिट भी गई थी
दुआ
अब कहाँ और किसी चीज़ की जा रक्खी है
दर्द बढ़ता ही रहे ऐसी दवा दे जाओ
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