बे-हिर्स-ओ-ग़रज़ क़र्ज़ अदा कीजिए अपना
जिस तरह पुलिस करती है चालान वग़ैरा
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माहिर-ए-अमराज़-ए-चश्म
जन्नत से निकाला हमें गंदुम की महक ने
मोटे शीशों की नाक पे ऐनक
अजीब लुत्फ़ था नादानियों के आलम में
पढ़ने भी न पाए थे कि वो मिट भी गई थी
दाख़िल-ए-दफ़्तर
'अनवर' उस ने न मैं ने छोड़ा है
पलकों के सितारे भी उड़ा ले गई 'अनवर'
भूले से हो गई है अगरचे ये उस से बात
दुआ
दर्द ओ दरमाँ
आइना देख ज़रा क्या मैं ग़लत कहता हूँ