'अनवर' उस ने न मैं ने छोड़ा है
अपने अपने ख़याल में रहना
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बे-हिर्स-ओ-ग़रज़ क़र्ज़ अदा कीजिए अपना
मुझे ख़ुद से भी खटका सा लगा था
दाख़िल-ए-दफ़्तर
तय हो गया है मसअला जब इंतिसाब का
उजड़ा सा वो नगर कि हड़प्पा है जिस का नाम
'अनवर' मिरी नज़र को ये किस की नज़र लगी
घर
मैं जुर्म-ए-ख़मोशी की सफ़ाई नहीं देता
भूले से हो गई है अगरचे ये उस से बात
जो हँसना हँसाना होता है
बख़िया तो उस से एक भी सीधा नहीं लगा
आप कराएँ हम से बीमा छोड़ें सब अंदेशों को