डुबोए देता है ख़ुद-आगही का बार मुझे
मैं ढलता नश्शा हूँ मौज-ए-तरब उभार मुझे
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क्या शहर में है गर्मी-ए-बाज़ार के सिवा
बिखर के टूट गए हम बिखरती दुनिया में
कितने सुबुक-दिल हुए तुझ से बिछड़ने के बाद
सारी शफ़क़ समेट के सूरज चला गया
उजालती नहीं अब मुझ को कोई तारीकी
मेरी नज़र के लिए कोई रिवायत न थी
हुजूम शोला में था हल्क़ा-ए-शरर में था
अज़ाब-ए-हमसफ़री से गुरेज़ था मुझ को