उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
नाम को दुनिया में हैं अब साहब-ए-इस्लाम हम
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Parveen Shakir
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अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
ख़त में लिक्खी है हक़ीक़त दश्त-गर्दी की अगर
आशिक़-ए-गेसू-ओ-क़द तेरे गुनहगार हैं सब
साफ़ बातों से हो गया मा'लूम
गुल-गूँ तिरी गली रहे आशिक़ के ख़ून से
ये जी में आता है जल जल के हर ज़माँ नासेह
ख़फ़ा हो गालियाँ दो चाहे आने दो न आने दो
सैर करते उसे देखा है जो बाज़ारों में
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
रुख़ तह-ए-ज़ुल्फ़ है और ज़ुल्फ़ परेशाँ सर पर
हम ने एहसान असीरी का न बर्बाद किया
कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई