कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
ऐ जान आ के तूल-ए-शब-ए-इंतिज़ार देख
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अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
यूँ रूह थी अदम में मिरी बहर-ए-तन उदास
बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं
हुआ मैं रिंद-मशरब ख़ाक मर कर इस तमन्ना में
रोज़-ए-अव्वल से असीर ऐ दिल-ए-नाशाद हैं हम
मुझ से उन आँखों को वहशत है मगर मुझ को है इश्क़
सोते हैं फैल फैल के सारे पलंग पर
जब हुआ गर्म-ए-कलाम-ए-मुख़्तसर महका दिया
लाग़र ऐसा वहशत-ए-इश्क़-ए-लब-ए-शीरीं में हूँ
तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में
बशर के फ़ैज़-ए-सोहबत से लियाक़त आ ही जाती है
कुछ ख़बर देता नहीं उस की दिल-ए-आगह मुझे