कुछ ख़बर देता नहीं उस की दिल-ए-आगह मुझे
वही के मानिंद अब मौक़ूफ़ है इल्हाम का
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क्या कोई दिल लगा के कहे शे'र ऐ 'क़लक़'
तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में
सैद ख़ाइफ़ वो हों इस सैद-गह-ए-आ'लम में
राह-ए-हक़ में खेल जाँ-बाज़ी है ओ ज़ाहिर-परस्त
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
न वो ख़ुशबू है गुलों में न ख़लिश ख़ारों में
आएँगे वो तो आप में हरगिज़ न आएँगे
मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
जब हुआ गर्म-ए-कलाम-ए-मुख़्तसर महका दिया
हज़रत-ए-इश्क़ ने दोनों को किया ख़ाना-ख़राब
आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार
नहीं चमके ये हँसने में तुम्हारे दाँत अंजुम से