मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
कोई नहीं शरीक किसी के गुनाह में
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
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Habib Jalib
Rahat Indori
Wasi Shah
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
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न कल तक थे वो मुँह लगाने के क़ाबिल
पिन्हाँ था ख़ुश-निगाहों की दीदार का मरज़
वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप
काबे से खींच लाया हम को सनम-कदे में
यूँ राही-ए-अ'दम हुई बा-वस्फ़-ए-उज़्र-ए-लंग
ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है
ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
करो तुम मुझ से बातें और मैं बातें करूँ तुम से
हम तो न घर में आप के दम-भर ठहरने आएँ
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर
यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल