काबे से खींच लाया हम को सनम-कदे में
बन कर कमंद-ए-उल्फ़त ज़ुन्नार बरहमन का
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वो एक रात तो मुझ से अलग न सोएगा
लाग़र ऐसा वहशत-ए-इश्क़-ए-लब-ए-शीरीं में हूँ
चश्मक-ज़नी में करती नहीं यार का लिहाज़
न कल तक थे वो मुँह लगाने के क़ाबिल
रोज़-ए-अव्वल से असीर ऐ दिल-ए-नाशाद हैं हम
ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है
जब हुआ गर्म-ए-कलाम-ए-मुख़्तसर महका दिया
'क़लक़' ग़ज़लें पढ़ेंगे जा-ए-कुरआँ सब पस-ए-मुर्दन
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर
वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप
तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में