जमे क्या पाँव मेरे ख़ाना-ए-दिल में क़नाअ'त का
जिगर में चुटकियाँ लेता है नाख़ुन दस्त-ए-हाजत का
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कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
ये बारीक उन की कमर हो गई
दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
नहीं चमके ये हँसने में तुम्हारे दाँत अंजुम से
ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब ऐ ज़ाहिदो इस्लाम-ए-आशिक़ का
याद दिलवाइए उन को जो कभी वादा-ए-वस्ल
बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को
खुलने से एक जिस्म के सौ ऐब ढक गए
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर