आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
ऐ बुतो इतना सताओ न ख़ुदा-रा मुझ को
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गर्दिश में साथ उन आँखों का कोई न दे सका
अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
सैर करते उसे देखा है जो बाज़ारों में
ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत
बुत-परस्ती में भी भूली न मुझे याद-ए-ख़ुदा
उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
यही इंसाफ़ तिरे अहद में है ऐ शह-ए-हुस्न
मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
हम तो न घर में आप के दम-भर ठहरने आएँ
ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब
नहीं चमके ये हँसने में तुम्हारे दाँत अंजुम से