गर्दिश में साथ उन आँखों का कोई न दे सका
दिन रह गया कभी तो कभी रात रह गई
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शरफ़ इंसान को कब ज़िल्ल-ए-हुमा देता है
लुत्फ़-ए-बहार मुश्फ़िक़-ए-मन देखते चलो
रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ
वो एक रात तो मुझ से अलग न सोएगा
दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
गर दिल में कर के सैर-ए-दिल-ए-दाग़-दार देख
दाँतों से जबकि उस गुल-ए-तर के दबाए होंठ
मिलता है क़ैद-ए-ग़म में भी लुत्फ़-ए-फ़ज़ा-ए-बाग़
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
बराबर एक से मिस्रा नज़र आते हैं अबरू के