फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
ताइर-ए-दिल को हमारे राम-दाना चाहिए
Mohsin Naqvi
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Allama Iqbal
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Mir Taqi Mir
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Gulzar
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हुज़ूर-ए-ग़ैर तुम उश्शाक़ की तहक़ीर करते हो
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
काबे से खींच लाया हम को सनम-कदे में
ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है
आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
था क़स्द-ए-क़त्ल-ए-ग़ैर मगर मैं तलब हुआ
यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
मिलता है क़ैद-ए-ग़म में भी लुत्फ़-ए-फ़ज़ा-ए-बाग़
चला है छोड़ के तन्हा किधर तसव्वुर-ए-यार
कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर