फिर गया आँखों में उस कान के मोती का ख़याल
गोश-ए-गुल तक न कोई क़तरा-ए-शबनम आया
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शरफ़ इंसान को कब ज़िल्ल-ए-हुमा देता है
ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत
फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
दिल में आते ही ख़ुशी साथ ही इक ग़म आया
हम तो न घर में आप के दम-भर ठहरने आएँ
ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
आरिज़ में तुम्हारे क्या सफ़ा है
परतव-ए-रुख़ का तिरे दिल में गुज़र रहता है
बोलेगा कौन आशिक़-ए-नादार की तरफ़
यगाना उन का बेगाना है बेगाना यगाना है
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
सैद ख़ाइफ़ वो हों इस सैद-गह-ए-आ'लम में