मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
बिछाएँगे मुसल्ला चल के हम मेहराब-ए-अबरू में
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ऐ परी-ज़ाद जो तू रक़्स करे मस्ती में
गर दिल में कर के सैर-ए-दिल-ए-दाग़-दार देख
बोलेगा कौन आशिक़-ए-नादार की तरफ़
ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है
मुझ से उन आँखों को वहशत है मगर मुझ को है इश्क़
आएँगे वो तो आप में हरगिज़ न आएँगे
रोज़-ए-अव्वल से असीर ऐ दिल-ए-नाशाद हैं हम
हम तो न घर में आप के दम-भर ठहरने आएँ
करेंगे हम से वो क्यूँकर निबाह देखते हैं
फिर गया आँखों में उस कान के मोती का ख़याल
चला है छोड़ के तन्हा किधर तसव्वुर-ए-यार
वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है