वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
मिला है गेसू-ए-जानाँ से सिलसिला दिल का
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गर्दिश में साथ उन आँखों का कोई न दे सका
यही इंसाफ़ तिरे अहद में है ऐ शह-ए-हुस्न
ऐ परी-ज़ाद जो तू रक़्स करे मस्ती में
नया मज़मून लाना काटना कोह-ओ-जबल का है
तासीर जज़्ब मस्तों की हर हर ग़ज़ल में है
हिम्मत का ज़ाहिदों की सरासर क़ुसूर था
सोते हैं फैल फैल के सारे पलंग पर
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
'क़लक़' ग़ज़लें पढ़ेंगे जा-ए-कुरआँ सब पस-ए-मुर्दन
लूटे मज़े जो हम ने तुम्हारे उगाल के
नहीं चमके ये हँसने में तुम्हारे दाँत अंजुम से
आएँगे वो तो आप में हरगिज़ न आएँगे