वो एक रात तो मुझ से अलग न सोएगा
हुआ जो लज़्ज़त-ए-बोस-ओ-कनार से वाक़िफ़
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बाक़ी न हुज्जत इक दम-ए-इसबात रह गई
लुत्फ़-ए-बहार मुश्फ़िक़-ए-मन देखते चलो
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
ये जी में आता है जल जल के हर ज़माँ नासेह
तिरे होंठों से शर्मा कर पसीने में हुआ ये तर
बशर के फ़ैज़-ए-सोहबत से लियाक़त आ ही जाती है
परतव पड़ा जो आरिज़-ए-गुलगून-ए-यार का
वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की
मय जो दी ग़ैर को साक़ी ने कराहत देखो
बुत-परस्ती में भी भूली न मुझे याद-ए-ख़ुदा
चला है छोड़ के तन्हा किधर तसव्वुर-ए-यार
ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है