हिम्मत का ज़ाहिदों की सरासर क़ुसूर था
मय-ख़ाना ख़ानक़ाह से ऐसा न दूर था
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छेड़ा अगर मिरे दिल-ए-नालाँ को आप ने
दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ
यूँ रूह थी अदम में मिरी बहर-ए-तन उदास
परतव-ए-रुख़ का तिरे दिल में गुज़र रहता है
जमे क्या पाँव मेरे ख़ाना-ए-दिल में क़नाअ'त का
बाक़ी न हुज्जत इक दम-ए-इसबात रह गई
वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की
वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
नहीं चमके ये हँसने में तुम्हारे दाँत अंजुम से
करो तुम मुझ से बातें और मैं बातें करूँ तुम से
ये जी में आता है जल जल के हर ज़माँ नासेह