दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
मतलब कोई क्या समझेगा मस्तों की ज़टल का
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बा'द मेरे जो किया शाद किसी को तो कहा
यूँ राही-ए-अ'दम हुई बा-वस्फ़-ए-उज़्र-ए-लंग
पिन्हाँ था ख़ुश-निगाहों की दीदार का मरज़
चश्मक-ज़नी में करती नहीं यार का लिहाज़
जब हुआ गर्म-ए-कलाम-ए-मुख़्तसर महका दिया
लाग़र ऐसा वहशत-ए-इश्क़-ए-लब-ए-शीरीं में हूँ
न वो ख़ुशबू है गुलों में न ख़लिश ख़ारों में
कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ
परतव-ए-रुख़ का तिरे दिल में गुज़र रहता है
साफ़ बातों से हो गया मा'लूम
रग-ओ-पै में भरा है मेरे शोर उस की मोहब्बत का