ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
इस चमन से जो गया सर्व तो शमशाद आया
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आरिज़ में तुम्हारे क्या सफ़ा है
चला है छोड़ के तन्हा किधर तसव्वुर-ए-यार
बराबर एक से मिस्रा नज़र आते हैं अबरू के
फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
वो एक रात तो मुझ से अलग न सोएगा
बाक़ी न हुज्जत इक दम-ए-इसबात रह गई
बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को
ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत
बुत-परस्ती में भी भूली न मुझे याद-ए-ख़ुदा
आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
खुलने से एक जिस्म के सौ ऐब ढक गए