घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
कुश्ता-ए-अबरू हूँ मैं क्या ग़ुस्ल-ख़ाना चाहिए
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ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है
गर्दिश में साथ उन आँखों का कोई न दे सका
बराबर एक से मिस्रा नज़र आते हैं अबरू के
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
गुलगश्त-ए-बाग़ को जो गया वो गुल-ए-फ़रंग
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
हज़रत-ए-इश्क़ ने दोनों को किया ख़ाना-ख़राब
गर दिल में कर के सैर-ए-दिल-ए-दाग़-दार देख
रुख़ तह-ए-ज़ुल्फ़ है और ज़ुल्फ़ परेशाँ सर पर
दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
हम ने एहसान असीरी का न बर्बाद किया
तिरे होंठों से शर्मा कर पसीने में हुआ ये तर