तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में
तो हाला गिर्द हर्फ़ों के बने सोने के पानी का
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गुलों पर साफ़ धोका हो गया रंगीं कटोरी का
हम ने एहसान असीरी का न बर्बाद किया
दिल में आते ही ख़ुशी साथ ही इक ग़म आया
रुख़ तह-ए-ज़ुल्फ़ है और ज़ुल्फ़ परेशाँ सर पर
बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
हम तो न घर में आप के दम-भर ठहरने आएँ
कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप
इश्क़ में तेरे जान-ए-ज़ार हैफ़ है मुफ़्त में चली
ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं