क्या कोई दिल लगा के कहे शे'र ऐ 'क़लक़'
नाक़द्री-ए-सुख़न से हैं अहल-ए-सुख़न उदास
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सैद ख़ाइफ़ वो हों इस सैद-गह-ए-आ'लम में
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
साफ़ बातों से हो गया मा'लूम
अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत
फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी
मिलता है क़ैद-ए-ग़म में भी लुत्फ़-ए-फ़ज़ा-ए-बाग़
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में