गुल-गूँ तिरी गली रहे आशिक़ के ख़ून से
यारब न हो ख़िज़ाँ से ये तेरा चमन ख़राब
Jaun Eliya
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शरफ़ इंसान को कब ज़िल्ल-ए-हुमा देता है
आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार
आएँगे वो तो आप में हरगिज़ न आएँगे
ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है
फिर गया आँखों में उस कान के मोती का ख़याल
गर दिल में कर के सैर-ए-दिल-ए-दाग़-दार देख
वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप
गर्दिश में साथ उन आँखों का कोई न दे सका
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर
बराबर एक से मिस्रा नज़र आते हैं अबरू के
दाँतों से जबकि उस गुल-ए-तर के दबाए होंठ
कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई