ज़ुल्फ़ थी जो बिखर गई रुख़ था कि जो निखर गया
हाए वो शाम अब कहाँ हाए वो अब सहर कहाँ
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जो नक़्श है हस्ती का धोका नज़र आता है
लज़्ज़त-ए-सज्दा-हा-ए-शौक़ न पूछ
मता-ए-ज़ीस्त क्या हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
सामने उन के तड़प कर इस तरह फ़रियाद की
यूँ न मायूस हो ऐ शोरिश-ए-नाकाम अभी
लोग मरते भी हैं जीते भी हैं बेताब भी हैं
गर्म-ए-तलाश-ओ-जुस्तुजू अब है तिरी नज़र कहाँ
कौन था उस के हवा-ख़्वाहों में जो शामिल न था
बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ न मस्ती है न होश
है दिल-ए-नाकाम-ए-आशिक़ में तुम्हारी याद भी
मिरी वहशत पे बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं ज़ाहिद