साग़र नहीं कि झूम के उट्ठे उठा लिया
ये ज़िंदगी का बोझ है मिल कर उठाइए
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इस से पहले कि हवा मुझ को उड़ा ले जाए
हुसैन
घरौंदे
सराए
जो साए बिछाते हैं फल फूल लुटाते हैं
मिट्टी में कितने फूल पड़े सूखते रहे
आने वाले दौर में जो पाएगा पैग़म्बरी
ज़िक्र-ए-अस्लाफ़ से बेहतर है कि ख़ामोश रहें
इतना एहसास तो दे पालने वाले मुझ को
खो गई जा के नज़र यूँ रुख़-ए-रौशन के क़रीब
बैसाखी
जो हादिसा कि मेरे लिए दर्दनाक था