इक लफ़्ज़ याद था मुझे तर्क-ए-वफ़ा मगर
भूला हुआ हूँ ठोकरें खाने के बअ'द भी
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हम ने देखा है इतने खंडर ख़्वाब में
हीला है हवाला है
घटा जब रक़्स करती है तो उन की याद आती है
आ जाओ अब तो ज़ुल्फ़ परेशाँ किए हुए
ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त को तिरी याद ने भरने न दिया
तीर-ए-नज़र ने आप की घाएल किया मुझे
वो मेरा है तो कभी भी न आज़माऊँ उसे
आओ तो मेरे सहन में हो जाए रौशनी
याद रखना भी इक इबादत है
दिल मानता नहीं है मनाने के बअ'द भी
सोचते हैं कि बुलबुला हो जाएँ