आओ तो मेरे सहन में हो जाए रौशनी
मुद्दत गुज़र गई है चराग़ाँ किए हुए
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इक लफ़्ज़ याद था मुझे तर्क-ए-वफ़ा मगर
याद रखना भी इक इबादत है
ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त को तिरी याद ने भरने न दिया
आ जाओ अब तो ज़ुल्फ़ परेशाँ किए हुए
हीला है हवाला है
सोचते हैं कि बुलबुला हो जाएँ
ज़िंदगी की हक़ीक़त अजब हो गई
होश-ओ-हवास खोने लगा हूँ फ़िराक़ में
घटा जब रक़्स करती है तो उन की याद आती है
सवेरा ले के आता है मिरे ख़्वाबों की ताबीरें
दिल मानता नहीं है मनाने के बअ'द भी