ज़िंदगी की हक़ीक़त अजब हो गई
आज कल हो रही है बसर ख़्वाब में
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दिल मानता नहीं है मनाने के बअ'द भी
इक लफ़्ज़ याद था मुझे तर्क-ए-वफ़ा मगर
याद रखना भी इक इबादत है
आज भी नक़्श हैं दिल पर तिरी आहट के निशाँ
तमाम दिन की मशक़्क़त-भरी तकान के ब'अद
वो मेरा है तो कभी भी न आज़माऊँ उसे
हम ने देखा है इतने खंडर ख़्वाब में
सोचते हैं कि बुलबुला हो जाएँ
सवेरा ले के आता है मिरे ख़्वाबों की ताबीरें
होश-ओ-हवास खोने लगा हूँ फ़िराक़ में
ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त को तिरी याद ने भरने न दिया
घटा जब रक़्स करती है तो उन की याद आती है