नमी उतर गई धरती में तह-ब-तह 'असलम'
बहार-ए-अश्क नई रुत की इब्तिदा में है
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उन्हें ये फ़िक्र कि दिल को कहाँ छुपा रक्खें
हज़ार रास्ते बदले हज़ार स्वाँग रचे
खोखले बर्तन के होंट
कोई इशारा कोई इस्तिआ'रा क्यूँकर हो
वहाँ हर एक इसी नश्शा-ए-अना में है
हम भी 'असलम' इसी गुमान में हैं
तमाम खेल-तमाशों के दरमियान वही
वो शब-ए-ग़म जो कम अँधेरी थी
तुम्हारे दर्द से जागे तो उन की क़द्र खुली
मौत का इंतिज़ार सफ़ेद चाक से
हवाएँ शहर की आलूदा-ए-कसाफ़त हैं
शाम का रक़्स