वो काफ़िर-निगाहें ख़ुदा की पनाह
जिधर फिर गईं फ़ैसला हो गया
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अगर कार-ए-उल्फ़त को मुश्किल समझ लूँ
किसे फ़ुर्सत कि फ़र्ज़-ए-ख़िदमत-ए-उल्फ़त बजा लाए
सितम-दोस्त फ़िक्र-ए-अदावत कहाँ तक
दीदार की तलब के तरीक़ों से बे-ख़बर
ये इक शान-ए-ख़ुदा है मैं नहीं हूँ
हम को न मिल सका तो फ़क़त इक सुकून-ए-दिल
सज़ाएँ तो हर हाल में लाज़मी थीं
न पूछो कौन हैं क्यूँ राह में नाचार बैठे हैं
तलब-ए-आशिक़-ए-सादिक़ में असर होता है
हक़ बना बातिल बना नाक़िस बना कामिल बना
बंदा-परवर मैं वो बंदा हूँ कि बहर-ए-बंदगी