हर एक शख़्स यहाँ महव-ए-ख़्वाब लगता है
किसी ने हम को जगाया नहीं बहुत दिन से
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हुई न ख़त्म तेरी रहगुज़ार क्या करते
है अब भी बिस्तर-ए-जाँ पर तिरे बदन की शिकन
ये बार-ए-ग़म भी उठाया नहीं बहुत दिन से
दिल की गली में चाँद निकलता रहता है
न जाने ख़त्म हुई कब हमारी आज़ादी
घुटन सी होने लगी उस के पास जाते हुए
हर एक सम्त यहाँ वहशतों का मस्कन है
कहीं अबीर की ख़ुश्बू कहीं गुलाल का रंग
तुम्हारी याद के दीपक भी अब जलाना क्या
फिर इस के बाद मनाया न जश्न ख़ुश्बू का
एक मुद्दत से हैं सफ़र में हम