न जाने ख़त्म हुई कब हमारी आज़ादी
तअल्लुक़ात की पाबंदियाँ निभाते हुए
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कहीं अबीर की ख़ुश्बू कहीं गुलाल का रंग
घुटन सी होने लगी उस के पास जाते हुए
फिर इस के बाद मनाया न जश्न ख़ुश्बू का
तुम्हारे आने की उम्मीद बर नहीं आती
दिल की गली में चाँद निकलता रहता है
हर एक सम्त यहाँ वहशतों का मस्कन है
वो माहताब अभी बाम पर नहीं आया
है अब भी बिस्तर-ए-जाँ पर तिरे बदन की शिकन
ये कैफ़ियत है मेरी जान अब तुझे खो कर
मुझ को वहशत हुई मिरे घर से
तुम्हारी याद के दीपक भी अब जलाना क्या