इक वक़्त था कि दिल को सुकूँ की तलाश थी
और अब ये आरज़ू है कि दर्द-ए-निहाँ रहे
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जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं
इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो
इक हम कि उन के वास्ते महव-ए-फ़ुग़ाँ रहे
तुम पे इल्ज़ाम न आ जाए सफ़र में कोई
ग़म-ए-उक़्बा ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-हस्ती की क़सम
मोहब्बत लफ़्ज़ तो सादा सा है लेकिन 'अज़ीज़' इस को
उस ने मिरे मरने के लिए आज दुआ की
तिरी तलाश में निकले हैं तेरे दीवाने
ये हम पर लुत्फ़ कैसा ये करम क्या
दिल में हमारे अब कोई अरमाँ नहीं रहा
ख़ुशी महसूस करता हूँ न ग़म महसूस करता हूँ