मैं ने चुप के अंधेरे में ख़ुद को रखा इक फ़ज़ा के लिए

मैं ने चुप के अंधेरे में ख़ुद को रखा इक फ़ज़ा के लिए

हुजरा-ए-ज़ात में रौशनी लाने वाली दुआ के लिए

बे-सदा साअतों में समाअत की रफ़्तार रुकने को थी

एक आहट ने मुझ से कहा जाग जाओ ख़ुदा के लिए

एक दुश्मन-नज़र मेरी नरमी पे ईमान लाने को है

मैं अजब इंतिहा पर खड़ा हूँ किसी इब्तिदा के लिए

कोई ख़ुश-क़ामती आईने के मुक़ाबिल सँभलती हुई

कोई तदबीर-ए-नज़्ज़ारा सिमटी हुई इक अदा के लिए

एक हैरत से लिपटी हुई इक सुबुक-दोशी-ए-पैरहन

मुज़्तरिब है अचानक बिछड़ जाने वाली हया के लिए

इक सफ़र हौसले और ख़्वाहिश की तस्दीक़ करता हुआ

एक रस्ते पे मादूम होते हुए नक़्श-ए-पा के लिए

मेरी आँखें और इन में चमकते हुए मुस्तक़िल फ़ैसले

जगमगाते रहेंगे यूँही आने वाली हवा के लिए

इस से पहले कि मंज़िल अंधेरों में तब्दील होने लगे

क़ाफ़िले से कहो रहनुमा ढूँड ले रहनुमा के लिए

वुसअत-ए-आसमाँ सुब्ह-ए-परवाज़ का कोई मुज़्दा सुना

शाख़-ए-हसरत पे बैठे हुए ताइर-ए-बे-नवा के लिए

एक बाग़-ए-तअल्लुक़ किसी चश्म-ए-हैराँ में आबाद है

ऐ ख़ुदा इस नज़ारे को सरसब्ज़ रखना सदा के लिए

'अज़्म' इस अर्सा-ए-ना-मुरादी से घबरा के ये मत कहो

ऐसी बे-रंग सी ज़िंदगी किस लिए किस जज़ा के लिए

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