रौशनी ढूँड के लाना कोई मुश्किल तो न था
लेकिन इस दौड़ में हर शख़्स को जलते देखा
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जो बात शर्त-ए-विसाल ठहरी वही है अब वज्ह-ए-बद-गुमानी
सवाल करने के हौसले से जवाब देने के फ़ैसले तक
कहीं गोयाई के हाथों समाअत रो रही है
कल सामने मंज़िल थी पीछे मिरी आवाज़ें
कितने मौसम सरगर्दां थे मुझ से हाथ मिलाने में
दिल सोया हुआ था मुद्दत से ये कैसी बशारत जागी है
कोई आसान रिफ़ाक़त नहीं लिक्खी मैं ने
दरिया पार उतरने वाले ये भी जान नहीं पाए
मुझे कल अचानक ख़याल आ गया आसमाँ खो न जाए
ऐ ख़्वाब-ए-पज़ीराई तू क्यूँ मिरी आँखों में
ख़राबी
बहुत क़रीने की ज़िंदगी थी अजब क़यामत में आ बसा हूँ