मेरे जिस्म से वक़्त ने कपड़े नोच लिए
मंज़र मंज़र ख़ुद मेरी पोशाक हुआ
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अगर साए से जल जाने का इतना ख़ौफ़ था तो फिर
अजीब हालत है जिस्म-ओ-जाँ की हज़ार पहलू बदल रहा हूँ
मैं ने इक शहर हमेशा के लिए छोड़ दिया
शब की आग़ोश में महताब उतारा उस ने
आज की रात दिवाली है दिए रौशन हैं
यूँ बार बार मुझ को सदाएँ न दीजिए
तीरगी में सुब्ह की तनवीर बन जाएँगे हम
सारी रात के बिखरे हुए शीराज़े पर रक्खी हैं
अगर दश्त-ए-तलब से दश्त-ए-इम्कानी में आ जाते
ख़ून आँसू बन गया आँखों में भर जाने के ब'अद