अजीब हालत है जिस्म-ओ-जाँ की हज़ार पहलू बदल रहा हूँ
वो मेरे अंदर उतर गया है मैं ख़ुद से बाहर निकल रहा हूँ
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घर में चाँदी के कोई सोने के दर रख जाएगा
ख़ून आँसू बन गया आँखों में भर जाने के ब'अद
मेरे जिस्म से वक़्त ने कपड़े नोच लिए
ख़ाक उड़ाते हुए ये म'अरका सर करना है
अपने दुख-दर्द का अफ़्साना बना लाया हूँ
आज की रात दिवाली है दिए रौशन हैं
शब की आग़ोश में महताब उतारा उस ने
अगर दश्त-ए-तलब से दश्त-ए-इम्कानी में आ जाते
सारे दुख सो जाएँगे लेकिन इक ऐसा ग़म भी है
सारी रात के बिखरे हुए शीराज़े पर रक्खी हैं