वो उन का वस्ल में ये कह के मुस्कुरा देना
तुलू-ए-सुब्ह से पहले हमें जगा देना
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नाले में कभी असर न आया
हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
यूँही रहा जो बुतों पर निसार दिल मेरा
क्यूँ मैं अब क़ाबिल-ए-जफ़ा न रहा
हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें
उन की हसरत भी नहीं मैं भी नहीं दिल भी नहीं
कभी हया उन्हें आई कभी ग़ुरूर आया
ख़ून हो जाएँ ख़ाक में मिल जाएँ
शिकवा सुन कर जो मिज़ाज-ए-बुत-ए-बद-ख़ू बदला
न मुदारात हमारी न अदू से नफ़रत