हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
ईद है और हम को ईद नहीं
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गर्दिश-ए-बख़्त से बढ़ती ही चली जाती हैं
बैठता है हमेशा रिंदों में
कभी हया उन्हें आई कभी ग़ुरूर आया
वो जो कर रहे हैं बजा कर रहे हैं
नाले में कभी असर न आया
शिफ़ा क्या हो नहीं सकती हमें लेकिन नहीं होती
न मुदारात हमारी न अदू से नफ़रत
ख़ून हो जाएँ ख़ाक में मिल जाएँ
शिकवा सुन कर जो मिज़ाज-ए-बुत-ए-बद-ख़ू बदला
यूँही रहा जो बुतों पर निसार दिल मेरा
उन को दिमाग़-ए-पुर्सिश-ए-अहल-ए-मेहन कहाँ