बैठता है हमेशा रिंदों में
कहीं ज़ाहिद वली न हो जाए
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जिस में सौदा नहीं वो सर ही नहीं
आह करना दिल-ए-हज़ीं न कहीं
वो उन का वस्ल में ये कह के मुस्कुरा देना
क्यूँ मैं अब क़ाबिल-ए-जफ़ा न रहा
ख़ून हो जाएँ ख़ाक में मिल जाएँ
पयाम ले के जो पैग़ाम-बर रवाना हुआ
क्यूँ मिरा हाल क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
दर्द-ए-दिल में कमी न हो जाए
वाइज़ ओ मोहतसिब का जमघट है
हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
साथ साथ अहल-ए-तमन्ना का वो मुज़्तर जाना
रक़ीबों का मुझ से गिला हो रहा है