दैर-ओ-हरम को देख लिया ख़ाक भी नहीं
बस ऐ तलाश-ए-यार न दर-दर फिरा मुझे
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कभी हया उन्हें आई कभी ग़ुरूर आया
शिकवा सुन कर जो मिज़ाज-ए-बुत-ए-बद-ख़ू बदला
शिफ़ा क्या हो नहीं सकती हमें लेकिन नहीं होती
गर्दिश-ए-चश्म-ए-यार ने मारा
साथ साथ अहल-ए-तमन्ना का वो मुज़्तर जाना
उन को दिमाग़-ए-पुर्सिश-ए-अहल-ए-मेहन कहाँ
हश्र पर वा'दा-ए-दीदार है किस का तेरा
रक़ीबों का मुझ से गिला हो रहा है
दर्द-ए-दिल में कमी न हो जाए
गर्दिश-ए-बख़्त से बढ़ती ही चली जाती हैं