न मुदारात हमारी न अदू से नफ़रत
न वफ़ा ही तुम्हें आई न जफ़ा ही आई
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क्यूँ मिरा हाल क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
नाले में कभी असर न आया
क्यूँ मैं अब क़ाबिल-ए-जफ़ा न रहा
हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें
इस बज़्म में न होश रहेगा ज़रा मुझे
कभी हया उन्हें आई कभी ग़ुरूर आया
शिफ़ा क्या हो नहीं सकती हमें लेकिन नहीं होती
हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
उन को दिमाग़-ए-पुर्सिश-ए-अहल-ए-मेहन कहाँ
वाइज़ ओ मोहतसिब का जमघट है
दैर-ओ-हरम को देख लिया ख़ाक भी नहीं
रक़ीबों का मुझ से गिला हो रहा है